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07/09/2016

इस बार -- में पढ़ें -- मुकेश कुमार सिन्हा की कवितायें


कविता कभी गांवों में बसती थी,फिर शहर में बस गयी,और समय के बदलते चलन के साथ महानगरों में बस गयी.मनुष्य की तरह कविता भी अपनी आदतों रहन-सहन और विचारों की तरह आधुनिक होती गयी,कविता के इस बदलते रंग को वर्तमान में देखा और समझा जा सकता है.
मुकेश कुमार सिन्हा की कवितायें इस बदलते दौर की महानगरीय कवितायें हैं जो गाँव,शहर और आधुनिक माहौल में रची हैं,इनकी कवितायें एकांगी और सीमित दायरे में नहीं सिमटती,स्वतंत्र कविता की पैरवी करती हैं.
मुकेश कुमार सिन्हा अपनी कविताओं को रचते समय कई खतरों को उठाकर कविता रचते हैं,इसीलिए इनकी कविताओं में आधुनिकपन,नये प्रतीक,अंग्रेजी मिश्रित शब्द और महानगरीय मुहावरों का बेहद खूबसूरती से प्रयोग होता है.

                                      -- ज्योति खरे
 


नाम-- मुकेश कुमार सिन्हा
जन्म-- 4 सितम्बर 1971,बेगुसराय,बिहार
शिक्षा-- बी,एस.सी.गणित
सम्प्रति--कृषि राज्य मंत्री,भारत सरकार,नई दिल्ली के साथ सम्बद्ध  

ब्लॉग--जिन्दगी की राहें-- http://jindagikeerahen.blogspot.in/
      मन के पंख-- http://mankepankh.blogspot.in/  

संग्रह-- "हमिंग बर्ड" कविता संग्रह   

सह-सम्पादन--कस्तूरी,पगडंडियां,गुलमोहर,तुहिन,एवं गूंज-साझा काव्य संग्रह
प्रकाशित साझा काव्य संग्रह--अनमोल संचयन /अनुगूँज खामोश,खामोशी और हम/ प्रतिभाओं की कमी नहीं/ शब्दों के अरण्य में/ अरुणिमा/ शब्दों की चहलकदमी/ पुष्प पांखुड़ी/ मुठ्ठी भर अक्षर- साझा लघु कथा संग्रह/ काव्या 
सम्मान--1.तस्लीम परिकल्पना ब्लोगोस्तव ( अंतर्राष्ट्रीय ब्लोगर्स एसोसिएशन ) द्वारा वर्ष 2011 के लिए सर्वश्रेष्ठ युवा कवि पुरस्कार
2.शोभना वेलफेयर सोसाइटी द्वारा वर्ष 2012 के लिए "शोभना काव्य सृजन सम्मान"
3.परिकल्पना- अंतराष्ट्रीय ब्लोगर्स एसोसियेशन द्वारा "ब्लॉग गौरव युवा सम्मान" वर्ष 2013 के लिए
4.विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ से हिंदी सेवा के लिए "विद्या वाचस्पति" 2013 में
5.दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल 2015 में "पोएट ऑफ़ द ईयर" का अवार्ड
6.प्रतिभा रक्षा सम्मान समिति, करनाल द्वारा " शेर-ए-भारत " अवार्ड मार्च 2016 में
 
ईमेल-- mukeshsaheb@gmail.com  
मोब-- +91-9971379996
निवास--लक्ष्मी बाई नगर, नई दिल्ली 110023
 
1--
मैं लिखूंगा एक नज्म तुम पर भी,
और
अगर न लिख पाया तो न सही
कोशिश तो होगी ही
तुम्हारे आगमन से
जीवन के अवसान में
शब्दों के पहचान की !!

तेज गति से चलता रुधिर
जब एकाएक होने लगे शिथिल
नब्जों में पसरने लगे
शान्ति का नवदीप
जैसे एक भभकता दीया
भक्क से बुझने से पहले
चुंधिया कर फैला दे
दुधिया प्रकाश !!
जर्द से चेहरे पर
एक दम से
दिखे, सुनहली लालिमा !
मौसम और समय के पहर से इतर
दूर से जैसे आती हो आवाज
एक मरियल से कुत्ते के कूकने की !!

समझ लेना विदा का वक्त
बस आ ही चुका है !
बेशक न कह - गुडबाय !
पर नजरों से तो पढ़ ही सकते हो
मृत्यु का एक प्रेम गीत !!

इतना तो कहोगे न -
"अब तक की बेहतरीन कविता " !!

2-- पिता का बेटे के साथ संबंध

होता है सिर्फ बायोलोजिकल -
खून का रिश्ता तो होता है सिर्फ माँ के साथ
समझाया था डॉक्टर ने
जब पापा थे किडनी डोनर
और डोनर के सारे टेस्ट से
गुजर रहे थे पापा
"अपने मंझले बेटे के लिए"

जितना हमने पापा को पहचाना
वो कोई बलशाली या शक्तिशाली तो
कत्तई नहीं थे
पर किडनी डोनेट करते वक़्त
पूरी प्रक्रिया के दौरान
कभी नहीं दिखी उनके चेहरे पे शिक़न
शायद बेटे के जाने का डर
भारी पड़ रहा था स्वयं की जान पर

पापा नहीं रहे मेरे आयडल कभी
आखिर कोई आयडल चेन स्मोकर तो हो नहीं सकता
और मुझे उनकी इस आदत से
रही बराबर चिढ !
पर उनका सिगरेट पीने का स्टाइल
और धुएं का छल्ला बनाना लगता गजब
आखिर पापा स्टायलिस्ट जो थे !
फिर एक चेन स्मोकर ने
अपने बेटे की जिंदगी के लिए
छोड़ दी सिगरेट, ये मन में कहीं संजो लिया था मैंने !

पापा के आँखों में आंसू भी देखे मैंने
कई बार, पर
जो यादगार है, वो ये कि
जब वो मुझे पहली बार
दिल्ली भेजने के लिए
पटना तक आये छोड़ने, तो
ट्रेन का चलना और उनके आंसू का टपकना
दोनों एक साथ, कुछ हुआ ऐसा
जैसे उन्होंने सोचा, मुझे पता तक नहीं और
मैंने भी एक पल फिर से किया अनदेखा !
ये बात थी दीगर कि वो ट्रेन मेरे शहर से ही आती थी
लेकिन कुछ स्टेशन आगे आ कर
छोड़ने पहुंचे. किया 'सी ऑफ' !

पाप की बुढ़ाती आँखों में
इनदिनों रहता है खालीपन
कुछ उम्मीदें, कुछ कसक
पर शायद मैं उन नजरों से बचता हूँ
कभी कभी सोच कहती है मैं भी अच्छा बेटा कहलाऊं
लेकिन
'अच्छा पापा' कहलाने की मेरी सनक
'अच्छे बेटे' पर,पड़ जाती है भारी

स्मृतियों में नहीं कुछ ऐसा कि
कह सकूँ, पापा हैं मेरे लिए सब कुछ
पर ढेरों ऐसे झिलमिलाते पल
छमक छमक कर सामने तैरते नजर आते हैं
ताकि
कह सकूँ, पापा के लिए बहुत बार मैं था 'सब कुछ'
पर अन्दर है गुस्सा कि
'बहुतों बार' तो कह सकता हूँ,
पर हर समय या 'हर बार' क्यों नहीं ?

रही मुझमे चाहत कि
मैं पापा के लिए
हर समय रहूँ "सब कुछ"
आखिर उम्मीदें ही तो जान मारती है न !!

3-- 
ब्रुकबांड ताज की
कुछ छिटकती पत्तियों सी तुम
रंग और फ्लेवर दोनों बदल देती हो
अकस्मात !
और मैं महसूस कर कह ही उठता हूँ
वाह ताज !

ताज का अर्थ क्या समझूँ फिर
तुम्हारी वजह से हो पाने वाला बदलाव
या
आँखों व साँसों में कौंधते
प्रेम प्रतीक, प्रेम के सांचे में ढली
मुमताज की याद !

या कहूँ
मेरी दुनिया में सातों वंडर्स
एक तुम्हारी खुशबू में
सिमट के रह गये
और में
सम्मोहित, आवाक् !

हाँ, मेरी मुमताज,
गोरी चिट्टी बेदाग़
पर हमें याद आता है तुम्हारा वो खास चेहरा
जब, कैडबरी सिल्क की बहती बूंदों के साथ
निश्छल व निष्पाप
तुम रहती हो मग्न
स्वयं के होंठो के कोरों से बहती चोकलेटी बूंदों को संभालती
मैं संभाले रखता हूँ तुम्हारे बाल !
आखिर संभालना तुम्हे, इतना मुश्किल तो नहीं

हाँ बालों से आया कुछ खास याद
इन दिनों, कौन से हेयर कलर का कर रही हो उपयोग
मेहँदी / गोदरेज या गार्नियर बरगंडी 3.16
तुम्हारे काले और सुनहले बालों का कोम्बो
भी है न अजीब,
तभी तो, रंग चुकने के बाद
कुछ सुनहरे घनेरे बालों की लटें
जब लहराती हो तुम

तुम्हारे रंगों के तिलस्म में प्रवाहित हो
प्रतिपल निखरता
आज भी कह उठता हूँ
वाह ताज .........नहीं नहीं
वाह मुमताज !



01/09/2016

​इस बार में पढ़ें - विजयश्री तनवीर की कहानी " समन्दर से लौटती नदी "


लाइम लाईट की चकाचौंध, सुख सुविधा का सम्मोहन, जीवन के सारे स्थापित अस्तित्व को धकिया के एक कदम पीछे कर देता है पर मन मस्तिष्क सुख सुविधा और कलावादी चकाचौंध की चाह के आगे विवश हो जाता है और फिर से एक कदम और आगे बढ़ने की जुगत में जुटे रहने की लालसा रखता है और हर कदम पर लज्जित होने के बाद भी हर " एक्सक्यूज " को स्वीकारते हुए आगे बढ़ता है.
नदी कोई व्यक्ति नहीं एक मनःस्थिति है जो मध्यवर्ग की सूत्रधार है और वह खारे पानी वाले उच्च वर्ग समन्दर में डूबना चाहती है, डूबती भी है पर समन्दर की असलियत पहचानते ही लौट आती है.
विजयश्री तनवीर की यह कहानी, कहानी भर नहीं है, यह महानगर और कलावादी चकाचौंध की सच्ची तस्वीर है. 
विजयश्री तनवीर अपनी कहानियों में समाज में घटित मानवीय संवेदनाओं को बहुत बारीकी से उकेरती हैं और अपने तीखे पर प्रभावपूर्ण सत्यों कों प्रबुद्ध पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती हैं. इनकी चर्चित कहानियां हैं, भेड़िया, युद्ध विराम, तितली--- " ज्योति खरे "
 
नाम ---विजयश्री तनवीर
जन्म तारीख़ ---11अक्टूबर
शिक्षा ---एम ए हिन्दी ,एम ए समाजशास्त्र ,मास कम्यूनिकेशन में डिप्लोमा ।
सम्प्रति ---हिन्दी अकादमी के सौजन्य से कविता संग्रह 'तपती रेत पर 'प्रकाशित ।
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ ,कविताएँ और लेख प्रकाशित ।
ईमेल --- vijayshriahmed@gmail.com 

" समन्दर से लौटती नदी "
कहते हैं , काले जादू की कोई काट नही ......जो इसकी ज़द में आया समझो गया ।और उस पर जादू अगर किसी जादूगरनी का हो तो किसी ढब निज़ात नही ।आठों पहर एक नामालुम कैफ़ियत और बदहवासी ।
इन दिनों यही कैफ़ियत सुकेश प्रधान के वज़ूद पर तारी है ।एक काला जादू उन्हें अलसुब्बह ही बालकनी में खीँच लाता है ।वो अखबार सामने पसारे मंत्रबिद्ध से खड़े रहते हैं जबकि उनका मन कबूतर बन पाँचवें माले की खिड़की पर दाने चुगता है ।
वो लगभग रोज़ ही रियाज़ करती है ।उसकी आवाज़ में वही खनक है जो प्रायः बंगाली लड़कियों की आवाज़ में हुआ करती है ।वो उसके सुरों के तिलिस्म में खोए ही हैं कि सुधा गरम चाय का प्याला उनकी बाँह से सटा देती है ।वो चौंक पड़ते हैं ।
"ब्लैक मैजिक .......लगता है चल गया तुम पर भी ।सुधा हँसती है ।
"भी मतलब "
"तुम जैसे जाने कितने होंगे "
"अच्छा ! तुम्हें कैसे पता " उन्हें इस चुहल में कदाचित् मजा़ आ रहा है ।
"चीज़ ही ऐसी है "।
"सचमुच " वो सीने पर बाँयी ओर हाथ मार एक नाटकीय आह भरते हैं ।.
सुधा पौधों को पानी देते हुए मुंह बिचकाकर ढेर सी बूँदें उन पर उछाल देती है ।
"बेकार है ....तुम्हें घास नही डालेगी "
"जाने दो , वैसे भी मुझे घास नही माँस पसंद है " वो उसे करीब खींच उसकी अनावृत कमर पर दाँत गड़ा देते हैं ।झेंपी सी सुधा ढलक आए पल्लू को संभाल इधर -उधर झांकती है ।
"श--र---म करो .....चालीस पार हो ....."
और उनकी बांहों के घेरे से मुक्त होकर वह उबलते दूध के निमित्त रसोई में दौड़ जाती है ।
सुकेश हँसते हुए वहीं से चिल्लाते हैं ।"तो क्या .......उम्र के साथ शर्म बढ़ती नऽऽही .....घटती है ,सऽमऽझीं "।

सुधा एक सुघड़ पत्नी है ।उनके बच्चों की अदद माँ ।समर्पित और संतुष्ट ।किंतु सुकेश ! उनकी बात और है ,वो कलाकार हैं ।हमेशा अधीर या गंभीर ,सजींदा या रजींदा ।उनके मर्म को जाने क्या -क्या छूता है और उनकी संवेदना कुछ नया पकड़ने को हमेशा चौकन्नी रहती है ।इस दुनिया से अलहदा उनकी एक और दुनिया है ।उनके रंग ,एज़ल और कैनवास ।जो उन्हें औरों से प्रथक करते हैं .....और शायद औरों से जोड़े भी रखते हैं ।
बहरहाल... यहाँ बात सुधा या सुकेश की नही काले जादू की है और जादूगरनी उनके ठीक नीचे पाँचवें माले पर रहती है ।जो महीना भर पहले ही उनकी दुनिया में दाखिल हुयी है ।

वह जून के आखिरी सप्ताह की कोई अलस दोपहर थी ।साहित्य कला परिषद की लंबी आर्ट गैलरी में बड़ी नफ़ासत से सजा था उनका "सेवेन्थ हैवन "। एग्ज़ीबिशन का आखिरी दिन था ।उस ऊँघती दोपहर में बाइस -चौबीस की वो युवती बड़ी गहराई से उनकी कला के मंतव्य को टटोल रही थी ।उन्हें अचरज हुआ था ,इस उम्र की लड़कियाँ कला दीर्घाओं में कम ही नज़र आती हैं ।
वो आकर्षक थी ....बल्कि बेहद आकर्षक ।चुस्त जींस ,चिपका हुआ टाॅप और कधें पर लापरवाही से झूलता स्नेक लैदर का झोलानुमा बैग ।अपनी रूचि और चयन की इस पोशाक में उसकी देह के कटाव और अधिक मुखर हो उठे थे ।उसके बाल कमर तक थे ।सीधे और सिनग्ध । जिन्हें बीच -बीच में वह व्यस्त भाव से लपेट लेती थी ।उसकी गहरी काली आँखें भीड़ भरे गलियारे में घूम फिरकर उनकी आँखों से टकराई और उसने एक मोहक मुस्कान उछाल दी ।जिसे तत्परता से लपककर वो उसके पास जा खड़े हुए ।वहाँ .....जहाँ दीवार पर एक उभरे पेट वाली जर्जर औरत की तस्वीर थी ।तीन फटेहाल लड़कियों को लिए पीपल पर धागे बाँधकर मन्नत मांगती अधेड़ औरत ।
उसने टिप्प से तस्वीर पर अंगुली रख दी ।
"यहाँ क्या दिखाई देता है ....औरत होने की गरिमा या पश्चाताप "?
"सिर्फ उम्मीद " वो सरलता से मुस्कराए ।"मेरे स्वर्ग की पहली सीढ़ी "।
"अच्छाऽऽ"!! वो हँस पड़ी ।..."वाकई बड़ा ही सुन्दर है आपका स्वर्ग "। फिर समूचे गलियारे पर एक सरसरी नज़र डाल वो बड़ी शोख़ी से फसफुसाई "मगर ....यहाँ बस औरतें ही रहती हैं "?
इस शोख तंज़ को उन्होंने तुरंत ही पकड़ लिया ।
"औरतों के बिना कहीं कोई स्वर्ग होता होगा "? वो उसकी आँखों में झाँककर मुस्कराए तो उसकी बेजोड़ बादामी आँखें कुछ और गहरी हो गयीं ।
"आप कलाकार हम औरतों को कितना खास बना देते
हैं "।
"शायद ....लेकिन आप सचमुच खास हैं "
"शुक्रिया "। उसने नज़ाकत से कहा ।वो खुश लग रही थी । फिर कला पर चर्चा करते हुए वे साथ -साथ गैलरी में टहलते रहे ।यूँ इस चर्चा का कोई औचित्य नही था ।उसे कला की ज्यादा समझ नही थी ।लेकिन उसका रूझान गौरतलब था । एक औपचारिक मुलाकात आत्मीय होने ही लगी थी कि चंद पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया ।वह किनारे खड़ी कुछ देर उन्हें देखती रही और अततः विजिटर्स डायरी पर झुक गयी ।
मोती जैसे साफ सुंदर चार शब्द
"मोर देन एन आर्टिस्ट "--------------शेफ़ाली ।
*******
शेफ़ाली मज़ूमदार । बक़ौल सुधा "ब्लैक मैजिक "।उसे लेकर वो हमेशा सन्देहों की गठरी बाँधे रखती है ।कि क्यों वो आधी रात तक गायब रहती है ,क्यों तमाम रात उसकी बत्तियाँ जला करती हैं । क्यों कभी उसका अखबार दोपहर तक दहलीज पर धूल फाँकता है , क्यों मुँह अंधेरे ही वो सुर छेड़ देती है और क्यों घंटी बजा बजाकर परेशान दूधिया और कान्ताबाई बड़बड़ाते लौट जाते हैं ।
"अजीब है ......जाने क्या करती है "?
जल्द ही बगल से गुज़रते एक गूढ़ मुस्कान के साथ उसने ये भेद खोल दिया ।"बस्स यूँ समझिए ....मैं सपने बेचती हूँ "।भले ही इस खुलासे के साथ ये भेद और गहरा हो गया ।उलझाना शायद उसका मनपसंद शगल है ।उन्हें एलीवेटर तक छोड़ वह चट-पट सीढियाँ चढ़ गयी ।और वो उसकी देह की चपलता को ताकते रह गए ।हालाँकि बाद में उसने बताया कि वो एक विज्ञापन एजेंसी के लिए एड जिंगल गाने और स्लोगन लिखने का काम करती है।
******
पाँचवें माले का यह फ्लैट दरअसल रिटायर्ड कर्नल मज़ूमदार का है। उन्हें ये शहर जाने क्यों रास नही आया । सो वे कोलकाता जा बसे और "दिल्ली दूर "हो गयी ।
खैर जो भी हो वीरान पड़ा पाँचवां माला एकाएक गुलज़ार हो उठा है .....और बेशक एक रोज़ छठा माला भी ।
वो एक शाम घर लौटते हैं तो दंग रह जाते हैं ।शेफा़ली घर भर में हिरनी सी दौड़ती फिर रही है ।पीछे -पीछे नन्हें शावक से खिलखिलाते उसे पकड़ने को उतावले तरू और देव ।सोफ़े पर बैठी सुधा हँसते -हँसते दोहरी हुयी जा रही है ।उन्हें देखकर वह ठिठककर सकुचाई सी एक तरफ़ खड़ी हो गयी ।बेतरतीब साँसों के साथ गतिमान उसके सीने के उतार -चढ़ाव और पसीने से लथपथ चेहरा ।
"देखिए तो ......कर्नल साहब की फ़ाॅर्मेलिटी " सुधा ने शिकवा सा किया और एक कागज़ का पुर्ज़ा उन्हें थमा दिया । मेज़ पर कई तरह के सामानों का ढेर लगा है । नीली -गुलाबी तांत की साड़ी ....बंगाली कुरते .....संदेश के डिब्बे । मज़ूमदार ने दो पंक्तियों में शेफ़ाली का ध्यान रखने का आग्रह किया था ।
मोती जैसे साफ सुंदर शब्द .....वे चौंक गए ।ये लिखावट मज़ूमदार साहब की हरगिज़ नही थी ।ये कैसा संकेत है ?
"चलती हूँ "। उन्हें कशमकश में छोड़ वो लौट गयी ।
"अच्छी लड़की है ......नही ? बड़ी उदारता से सुधा ने अपनी राय बदल दी है और अब उस पर उनकी रज़ामंदी की मुहर चाहती है । वो मुस्करा कर रह गए ।सुधा साड़ी का पल्लू छाती पर फैलाकर खुद पर रीझ रही है "कैसी लग रही हूँ "? और वो अन्यमनस्क से "तुम पर सब जंचता है " दो टूक दायित्व निभाकर चाय के साथ घूँट -घूँट शेफ़ाली की उपस्थिति के रोमांच को पी रहे हैं ।मानो वो वहीं है ।दौड़ती ,खिलखिलाती सकुचाती और घूरती हुयी ।
******
जादू सिर चढ़ रहा है ।सुकेश बदल रहे हैं ।सामान्यतः देर तक सोने वाले सुकेश अपनी सुबह बालकनी में गुज़ारते हैं , बेमतलब ही सीढियाँ चढ़ते -उतरते हैं ।उनकी नज़र चोर हो गयी है । कुछ नही तो उससे रूबरू होने कोअखबार का ही बहाना सही .......
उसका घर भी मायावी सा है ।पुराने कायदे के फ़र्नीचर और एंटीक से सजा हुआ ।
"तुम यहाँ अकेली रहती हो "?
"नही तो "।.... हैरान करना उसकी आदत है ।"... आप जो
चौबीसों घन्टे साथ रहते हैं "।अक्सर हँसी उसके होठों से उठकर आँखों तक फैल जाती है ।
"देखिए ना" वो पिछले महीने भर के अखबारों की कतरने मेज़ पर बिछा देती है।वो आभारी हो उठते हैं ।ऐसा चाव सुधा को भी है भला ? चाय का प्याला थामते समय उसकी अंगुलियों से छू जाने की नाजायज़ सिहरन से वो देर तक थरथराते रहते हैं ।एक विचित्र ऊर्जा उन्हें आंदोलित रखती है .....जैसे उनके भीतर टेस्टोस्टेरॉन का स्तर एकाएक ही बढ़ गया है ।तमाम रात वो करवटें बदलते हैं, छाती पर औंधी पड़ी रहती हैं खुशवंत सिंह की "औरतें "। और सामने इतराती है शेफ़ाली ।"मैं सपने बेचती हूँ "
उन्हें लगता है वो सचमुच ही कोई जादू जानती है ।
*****
चंद दिनों में ही प्रधान परिवार का एक अभिन्न अंग बन गयी है शेफ़ाली ।अपरिहार्य ! सुधा को सहूलियत हो गयी है ।"तरू का होमवर्क मैं करा दुंगी ".....या "आप बैठिए ,आज चाय मैं बनाती हूँ ।" तरू और देव के लिए तो वो परी कथाओं की कोई नायिका है ।उसका बैग है या किसी जादूगरनी का पिटारा ! उसमें उनके आकर्षण की ढेरों चीज़ें रहा करती हैं ।टाॅफ़ियां ,चाॅकलेट ,गुब्बारे ,सीटियां सुपरमैन के स्टिकर और भी बहुत कुछ ।देव को जो खाना खिलाने को सुधा घंटों झींकती है उसे वो जाने किन -किन किस्सों के साथ मिनटों में खिला देती है।
कई बार रसोई में सुधा खाना बनाती है और परोसती है शेफ़ाली ।वो भी इस अदा से कि गोया खाना नही एक भूख परोस रही हो .......कितना भी खाए तो भी भूखे ही रहें।
किचन से बेडरूम तक उनके घर में बेधड़क विचरण करती है शेफ़ाली । उनकी निजी दराज से निकाल उनके परफ्यूम को खुद पर ढेर सा छिड़कती है ..."पाॅ --य ---ज़---न , अब आप सारा दिन आस -पास रहेंगे " ।वो मुस्कराते भर हैं ।कितनी नादान है शेफ़ाली ,उसे महसूस करने के लिए उन्हें किसी नकली वजह की ज़रूरत नही ।वो आँखें मूंदकर जब चाहे उसे अपने आगोश में समेट लेते हैं । वो बिंदास उनके रंगों और कूचिंयों से छेड़छाड़ करती है ....."ये हुनर मुझे भी सिखाइए "।
वो शरारत से हँसते है "मगर मेरी फ़ीस ?
"कहकर तो देखिए !! वो एक अजीब बौराएपन से उन्हें जकड़ लेती है ..."पूरी की पूरी शेफ़ाली आपकी ।"
ऐसा स्पष्ट इज़हार ! पता नही ये अभद्र दुस्साहसी लड़की उन्हें इतनी अच्छी क्यों लगती है ?
उन्हें बस चाहिए शेफ़ाली ......उनके कैनवास को ,उनके कलाकार मन को ,उनके अंदर के चिर अत्रप्त पुरूष को।
और कमोबेश शेफ़ाली का भी तो यही हाल है ।उसके भीतर कहीं गहरे बैठ चुके हैं सुकेश ।क्या करे शेफ़ाली ....वो हैं ही एैसे ।छः फुट लम्बे ,गोरे -चिट्टे ,ठुड्डी पर गड्ढा और बड़ा सा प्रभा मंडल । वो एक बुलंद रुतबा रखते हैं ।कला जगत में उनकी धूम हैऔर हज़ारों मुरीद हैं ।अखबार , टी.वी और पत्रिकाएं उन्हें खूब पहचानते
हैं ।अपनी कूँची और रंगों से किसी को भी जीवंत कर देने का माद्दा रखते हैं सुकेश ।
किन्तु कोई भय उन्हें शेफ़ाली को कैनवास पर उकेरने से रोकता है ।कभी -कभी हद जो कर देती है वो ।उन्हें घूरती है तो बस घूरती ही जाती है ।सुधा के सामने ही देव पर ताबड़तोड़ चुंबनों की झड़ी लगा देती है "कितना क्यूट है ........बिल्कुल आप जैसा " और उसे यूँ कसकर जकड़ती है कि वो कसमसाने लगता है ।बड़ी कुशलता से कभी उनका टूथब्रश कभी रूमाल जेब में सरकाकर चलती बनती है ।डरते हैं सुकेश कहीं उसकी मंशाओं को सुधा भाँप गयी तो !!!
"कह देना आप मुझसे प्यार करते हैं "। वो ढीठता से उन
पर झुक आती है ।
"पागल हुयी हो "?
क्षण भर को उसका चेहरा मलिन हो उठता है ।"क्यों .....नहीं करते ?"
उनके अंदर बहुत सारा कुछ एक साथ टूटता है ।कैसे कहें उसे कि वो उसके साथ चल तो सकते है पर कहीं पहुँच नही सकते ।तरू उसे दी कहती है .....वो सिकुड़ जाते हैं । किंतु शेफ़ाली .......वो किसी वर्जना को नही मानती ।
उसके जन्मदिन पर बुद्धा गार्डन के झुरमुटों में एक नयी शेफ़ाली से मिले थे सुकेश । जींस -टाॅप और सलवार -कमीज़ वाली शेफ़ाली से बिल्कुल जुदा ।शेफाॅन की नीली साड़ी के फिसलते पल्लू को संभालती सिमटी सी शेफ़ाली ।झेंपती हुयी चुपचाप अपने बेहतरीन संवरे हुए नाखूनों से नेलपाॅलिश खुरचती रही ।जैसे इस लिबास ने उसके व्यकितत्व को ही नहीं किरदार को भी बदल दिया हो ।
उनकी बनाई अपनी तस्वीर में उलझ सी गयी थी वो ।
शुष्क रेगिस्तान में बहती एक नदी ।
"ये मैं हूँ "।अभिभूत हो उठी थी शेफ़ाली ।इसलिए तो चाहिए उसे ये आदमी ।उसे जाने क्या हुआ अपने दोनो घुटनों पर उचककर उनके होठों पर दो अंगारे से टिका दिए उसने ।
"तब तो आप समन्दर हैं "।
मुलाकातों के सिलसिले चलते रहे .......लेकिन कब
तक !!
अचानक डाइनिंग टेबल पर एक विस्फोट हुआ "।छिः
...........तुमसे आधी उम्र की है वो ।"अखबार सामने पटककर आँखों से आँसू और ज़बान से जहर उगलती रही सुधा । "बदनाम तुम हुुए उसका तो नाम हुआ है ।"अखबार में छपी उनकी और शेफ़ाली की घनिष्ठता की तस्वीरें उनके नाम का मखौल उड़ा रही थी। दाम्पत्य में एक शीत युद्ध सा छिड़ गया ।कितने ही दिन वो थाली में चुप्पी और आक्रोश निगलते रहे ।खुद से ही कुंठित और नाराज से है सुकेश ।इस सारे रोष के बावजूद वो जानते है सुधा सही है।
उन्होंने शेफ़ाली के विरुद्ध ......नही अपने विरुद्ध एक
अहम फ़ैसला लिया ।
"हम और नही मिलेंगे "॥
"कब तक "? वो निर्लज्जता से हँस दी ।"आपको क्या लगा हमारा स्वागत होगा ?"
वो चुप रहे।
"आप अपने को बहुत कम महत्व देते हैं .........पूछिए खुद से आपको शेफ़ाली चाहिए कि नही ?"
उनके समग्र वज़ूद को चुनौती देकर दनदनाती चली गयी एक अदना लड़की ।
वो जितना दृढ़ होते हैं उसे निकाल फेंकने को , उतनी ही और घुलती है उनमें ।
वो उनके लिए प्यास भी है और नदी भी ,सुकून भी और बेचैनी भी ,कारण भी और निवारण भी ।
लेकिन अब किसी बेज़ा हरकत से एक महान कलाकार के साथ खिलवाड़ नही कर ससकते सुकेश ।
उधर वो भी अड़ी है "आप रह सकते हैं मेरे बगैर..... .तो क्या मैं नही "?
शनैः -शनैः गाड़ी पटरी पर लौट रही है ।सुधा मुतमइन हो रही है ,उनके दरमियान जमी बर्फ पिघलने लगी है।लेकिन वो नही जानते ये जादूगरनी का मायाजाल है जितना सहज है उसमें प्रविष्ट होना उतना ही दुष्कर है उससे बाहर निकलना ।
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सुधा के बाउजी की छाती का दर्द अचानक उखड़ गया है ।वो आनन -फानन सूटकेस में सामान ठूँस रही है साथ ही हिदायतों की फेहरिस्त भी थमाए जा रही है ।"तरू के स्कूल में एप्लीकेशन भेज देना ......पौधों को पानी .......सर्दी से बचना .....सिगरेट बिल्कुल नही ।बस हफ्ते भर की बात है अब खाली घर ! खाली दिमाग ! और ब्लैक मैजिक !!!
कैसे बचेंगे सुकेश ?
दोस्त की नयी किताब के जश्न में जमकर पी है उन्होंने ।बमुश्किल खड़े हो पा रहे हैं ।बहुत दिन बाद घर पहुँचने को फिर सीढियाँ चुनी हैं ।पांचवें माले पर सन्नाटा और अंधेरा पसरा हुआ है ।अंधेरे में दरवाजे से सटी एक परछाई जरा सी हिली और मोेटे परदे के पीछे लोप हो गयी ।तो उन्हें यूँ छिप -छिपकर देखा करती है शेफ़ाली ।वो ठिठककर कुछ देर उसके दरवाजे पर खड़े रहे फिर लड़खड़ा कर आगे बढे और धड़ाम से गिर पड़े ।शेफ़ाली की घुटी हुयी सी चीख़ कानों से टकराई ॥कितने ही मकानों की बत्तियाँ एक साथ जल उठी ।
ना जाने किस वक्त आँख खुली थी ।दिमाग चकरघिन्नी के मानिंद नाच रहा था ।बुखार से लस्त आँखें और सूखा हुआ गला ।मिचमिची आँखों से उन्होंने टटोलकर देखा ।दांयी ओर मेज़ पर चश्मा .....घड़ी .....एैश ट्रे....गिलास ।और बांयी तरफ़ ---------उनके बिस्तर पर बिल्कुल निर्वस्त्र निशंक सोती हुयी शेफ़ाली । क्रमशः उन्हें सब याद आता गया ।वर्मा की पार्टी में बेहिसाब पीना ,किसी परिचित का शेफ़ाली और उनके रिश्ते पर किया गया तंज़ ,गाली गलौज ,रेड लाइट पर पुलिसिए से हुयी झड़प ,वो भला आदमी जिसने स्कूटर रोककर कहा था "जाने दीजिये साहब ....शरीफ़ आदमी हैं ," .....शेफ़ाली के दरवाजे पर गिरना और पलंग के पास की हुयी सड़ांध भरी उल्टी और फिर ----फिर ....।
दो मन के लोथ को कैसे ढोकर लायी होगी शेफ़ाली ! किस तरह वो बदबूदार उल्टी साफ की होगी ,जिससे वो खुद भी घिन्ना जाएं ।कृतज्ञता से वो लबालब हो उठे ।लहरों ने किनारे तोड़ दिए ।पहलू में पड़ी निर्वस्त्र शेफ़ाली को बाँहों में भर जहाँ -तहाँ चूमते चले गए सुकेश । अमरबेल सी उनसे लिपटी रही शेफ़ाली ।रात भर अपने शयनकक्ष में एक नाजायज़ रिश्ते का अलाव तापते रहे हैं सुकेश प्रधान । कोई जान गया तो? उनकी कुन्द पड़ी चेतना सहसा लौट आयी ।अंदर बैठा
इज्ज़तदार कलाकार भयभीत हो उठा ।एैंठी हुयी सारी पेशियाँ शिथिल पड़ गयी ।
"तुम चली जाओ शेफ़ाली ।" उनकी आवाज़ में रिरियाहट सी उतर आयी ।इस बदले हुए किरदार के लिए कतई प्रस्तुत नही थी शेफ़ाली ।
"मैं नही जाउंगी .....आपको बुखार है ।" "प्लीज़ऽ ऽऽ" याचना की मुद्रा में दोनो हाथ जोड़कर चिल्ला से पड़े सुकेश ।कैसे दयनीय लग रहे थे वो ।।स्तब्ध रह गयी शेफ़ाली ।ये कौन सा रूप है उनका ।बाहर से इतना मजबूत और सतुंलित दिखने वाला ये शख़्स असल में इतना कमज़ोर है ।"तो आप पछता रहे हैं .........है ना ?
जी किया झिंझोड़ डाले उन्हें ।वो इतनी तुच्छ नही कि
उस रात का पश्चताप करें सुकेश ।कातर कर देने वाली नज़रों से उन्हें देखती चली गयी शेफ़ाली ।जैसे कह रही हो "मैं घृणा करती हूँ आपसे "।उन आँखों का सामना करने की ताब कहाँ थी उनमें ।
अब जादू अपने चरम पर है ।कई दिनों से घर में कैद हैं सुकेश ।
वो सीढियाँ उतरते हैं .....लगता है असंख्य आँखें उनकी पीठ पर चिपकी हुयी हैं ।सैकड़ों फुसफुसाहटे और कहकहे कानों में भिनभिना रहें है। बौरा गए हैं जैसे ।क्या करें, कहाँ जाए ? सिगरेट फूँकते -फूँकते अँगुलियाँ पीली पड़ चुकी हैं । खाली पड़े हैं उनके शापित कैनवास..... और रंग बदरंग हो गए हैं ।अजीब कैफ़ियत !!! कभी शेफ़ाली को छू लेने का जुनून ,कभी पश्चाताप । कभी लगता है किसी अचूक मन्त्र से छिन्न -भिन्न कर दे उसके सारे तन्त्र को । भस्म कर डाले उस जादूगरनी
को ।और कभी इच्छा होती है सरेआम उसका हाथ थामकर बस्स दौड़ते चले जाएँ वहाँ तक .....जहाँ वो सुकेश प्रधान न हों ।जहाँ उन्होंने अपने लिए कोई हद निश्चित न कर रखी हो ।
उधर अपने ही तिलिस्म में जली जा रही है शेफ़ाली ।अपमान के संताप से खौलती ....उबलती ।अपना आपा भूली हुयी ।
सुधा लौटी तो जैसे डूबते को सहारा मिल गया ।
उनके बेतरतीब बाल ,कई दिनों के सिलवटों भरे मैले कपड़े ,बढ़ीं हुयी शेव , कई रोज़ से जगी हुयी आँखें , चेहरे पर पसरी हुयी मनहूसियत ।
"हुलिया देखा है अपना .........जंगली लग रहे हो , मैं ना रहूँ तो तुम बस्स ..........." लाड़ भरे बनावटी गुस्से से डपटती रही सुधा ।यही सुरक्षा चक्र तो है जो किसी भी काले जादू से बचाता है उन्हें ।नन्हें बच्चे की तरह सुधा की गोद में देर तक दुबके रहे सुकेश ।
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देर रात तरू ने कहा था ........"दी जा रही है "।
स्टेशन की खचाखच भीड़ से जूझकर किसी तरह उस तक पहुँच सके थे ।उस रात के बाद अब देखा था उसे ।उफ़ !! कैसी लग रही थी शेफ़ाली ।छटपटा उठे सुकेश ।सूखे पपड़ाए होठ , निस्तेज पीला चेहरा और आँखों के नीचे उतर आयी गहरी स्याही ।कुछ ही दिनों में ये क्या
हो गयी थी शेफ़ाली ।
"आप क्यों यहाँ चले आए ?"
"जा रही हो ?" उनके गले में किरकिरा सा कुछ रूंध गया ।
"हाँ .....आपको यूँ डरा सहमा नही देख सकती ।"
वो अपराधी से खड़े थे ।"इस रिश्ते में तुम्हारे हिस्से कुछ नही आएगा "।
"ये आपसे किसने कहा ? उस कंठ स्वर में गहरा क्षोभ था या तिक्तता थी शायद ।"अपना हिस्सा मैं ले चुकी
हूँ "।
फिर लगा वो रो पड़ेगी ।उसने चेहरा घुमा लिया ।
दिल्ली -स्यालदेह राजधानी रफ़्तार पकड़ चुकी थी ।
समन्दर से नदी लौटी जा रही थी ।काश !! वो सुकेश प्रधान नही होते तो द्रुत गति से दौड़ जाते उसके पीछे ।
कितनी ही देर भीड़ में वो ख्वाहमख्वाह खड़े रहे ।
लाचार ! अतृप्त ! हताश !
लेकिन एक बात थी ....आज उन्हें कोई भय नही कि वो पहचान लिए जाएंगे ।